उज्जैन. मान्यता है कि श्राद्ध में कोई भी शुभ काम नहीं करते। न तो खरीदारी की जाती है और न ही कोई अन्य मांगलिक कार्य। अभी तक प्रचलित मान्यताओं के आधार पर श्राद्ध को शुभ कार्यों के लिए वर्जित माना जाता है। कोई भी शुभ कार्य या संपत्ति की खरीदी श्राद्ध के पहले या बाद में की जाती है। अगर वास्तविक तथ्य का पता लगाया जाए तो श्राद्ध अशुभ नहीं होते। ये भी एक तरह का पर्व है। श्राद्ध के 15 दिन शोक के माने जाते हैं।
हकीकत में ये दिन शोक के नहीं बल्कि उत्सव के हैं। इसे पितरों का उत्सव कहा जाता है और यह आनंद का मौका होता है न कि शोक का। वास्तव में यह हमारी उत्सव परंपरा का एक हिस्सा है। जिसमें हम उत्सवों के लिए हमारे पूर्वजों को आमंत्रित करते हैं। वे मेहमानों की तरह हमारे घर आते हैं। इस बात को गहराई से समझने के लिए हमें पूरी उत्सव परंपरा को समझना पड़ेगा। हमारे उत्सवों की शुरुआत रक्षाबंधन से होती है, सबसे पहले स्वयं का शुद्धिकरण और रक्षासूत्र बांध कर उत्सवों का आगाज किया जाता है। इसके बाद हम गणेशोत्सव मनाते हैं, कोई भी काम शुुरू करते समय सबसे पहले गणपति की पूजा की जाती है, इसलिए उत्सवों के लिए हम 11 दिन गणपति को पूजते हैं। इसके बाद अपने पितरों को बुलाया जाता है। इसे श्राद्ध कहते हैं। फिर माता का पूजन यानी नवरात्र मनाया जाता है।
जैसा किसी कर्म कांड में किया जाता है, पहले ब्राह्मण से रक्षासूत्र बंधाते हैं, फिर गणपति को पूजते हैं, फिर पितृदेवों की पूजा और फिर माता का पूजन। पितृ हमारे उत्सवों में शामिल होने के लिए मेहमानों की तरह आते हैं, इसलिए उनकी खातिरदारी के लिए घरों में खीर-पूड़ी बनाए जाते हैं। जब भी कोई अतिथि हमारे घर आता है तो हम खुश होते हैं न कि शोक मनाते हैं। उत्सव परंपरा को नहीं समझने वालों ने यह नियम बना दिया कि श्राद्ध में कोई मांगलिक कार्य नहीं किया जा सकता है। जबकि यह तो हमारे घर के सदस्यों, हमारे पूर्वजों का ही त्योहार है।
दीपक
No comments:
Post a Comment