Sunday, 17 October 2010
विजय पर्व "दशहरा" पर विशेष
आश्विन शुक्ल दशमी को मनाया जाने वाला उत्सव, जिसे विजय-दशमी या दशहरा के नाम से जाना जाता है, लोकमानस में रावण-वध से संबद्ध है। यही संबंध पौराणिक साहित्य में भी प्राय: सर्वत्र ही उल्लिखित है। मोटे तौर पर, कहानी यह है कि राम-रावण युद्ध में राम की पराजय हो रही थी, जिसका कारण यह था कि रावण ने शक्तिपूजा के द्वारा कालिका को प्रसन्न करके अपने पक्ष में कर रखा था और जब राम ने इसे जान कर शक्तिपूजा की तो देवी ने प्रकट होकर उन्हें विजय का वरदान दिया, जिसके बाद वे रावण का वध कर सकने में समर्थ हुए। राम की यह आराधना ही आश्विन-नवरात्र के दुर्गा-पूजन के नाम से प्रख्यात है।
बांग्ला कवि कृत्तिवास द्वारा रचित ‘रामायण’ में दी गई कथा के अनुसार यह आश्विन-नवरात्र का दुर्गा-पूजन ‘अकाल-उद्बोधन’ है अर्थात इसके पूर्व नवरात्र में दुर्गा-पूजन का विधान आश्विन में नहीं था, यद्यपि चैत्र के वासन्त नवरात्र का विधान था ही, कुछ अन्य पूजन-विधानों का भी उल्लेख कृत्तिवास द्वारा रचित ‘रामायण’ में है। इन पूजनों का तकनीकी नाम ‘कल्प’ है। इसी ‘अकाल में किए गए कल्प’ की ओर संकेत करते हुए निराला जी ने राम द्वारा किए गए इस शक्ति-पूजन पर केंद्रित अपनी प्रख्यात कविता ‘राम की शक्तिपूजा’ में जाम्बवान द्वारा राम को शक्ति की मौलिक कल्पना के लिए प्रेरित कराया है।
यों, शायद यह भी प्रासंगिक हो कि एक प्राचीन उपपुराण, देवी-पुराण में इस पूजन को देवी द्वारा घोरासुर के वध से संबद्ध बताया गया है। यह घोरासुर इस पुराण में ‘महिषासुर’ भी बताया गया है। इस प्रकार महिषासुर के वध की प्रसिद्ध कथा भी आश्विन नवरात्र से जोड़ी जा सकती है क्योंकि ऐसा नहीं है कि शक्तिपूजा से संबद्ध भारतीय भाषाओं में उपलब्ध विशाल साहित्य में सभी जगह आश्विन नवरात्र का संबंध रावण-वध से ही जोड़ा गया हो। सुविस्तृत भारतीय साहित्य में आश्विन नवरात्र को किसी कथा-विशेष से जोड़ने के प्रयास से अलग, यदि हम दुर्गापूजन की स्वीकृत विशेषताओं पर ध्यान देते हैं तो कुछ बातें, जैसे ‘असुर-वध’, ऐसी हैं जो भारतीय अवतार-कल्पना में सभी अवतारों में सर्वत्र मिलती हैं और कुछ बातें ऐसी हैं, जैसे ‘नवरात्र-पूजन’, जो देवी-आराधना में ही पाई जाती हैं। जहां तक दशहरा पर्व की बात है, एक लंबे समय से यह राजाओं का भी पर्व माना जाता रहा है और इसके साथ ‘शस्त्र-पूजन’ जैसे कृत्य और ‘विजय-प्राप्ति’ जैसे लक्ष्य जुड़े रहे हैं।
उत्सव की नींव में क्या है, इस पर सोचें तो यह प्रत्यक्ष दिखाई देता है कि महिषासुर-वध और रावण-वध में कोई ताžिवक अंतर नहीं है- दोनों ही ‘असुर-वध’ हैं। सभी कथाओं में ‘असुर’ की शक्ति अबाध है और वह ‘देव’ पर हावी है। मुख्यत: असुर की यह शक्ति प्रचलित सांसारिक व्यवस्था पर पूर्ण नियंत्रण के रूप में प्रत्यक्ष होती है, विद्या और बल की ऐसी किसी अभिव्यक्ति में नहीं जो और लोगों के लिए दुर्लभ हो। उदाहरण के लिए, रावण के बारे में हम सब जानते हैं कि वह एक महान विद्वान था किंतु ऐसा कोई उल्लेख नहीं मिलता कि उसकी यह विद्वत्ता तत्कालीन महर्षियों, महर्षि वशिष्ठ या महर्षि विश्वामित्र से बढ़ी-चढ़ी थी। युद्ध-विद्या के भी जो दिव्यास्त्र महर्षि विश्वामित्र से भगवान राम को मिले हैं, वे स्पष्टत: रावण के पास मौजूद अस्त्रों से अधिक प्रभावशाली ही थे क्योंकि उनका उपयोग करके राम ने रावण को पराजित किया।
रावण के नाम से एक वेद-भाष्य मौजूद है- आयुर्वेद और ज्योतिष का वह प्रमुख आचार्य है, उसने रामेश्वर शिवलिंग की स्थापना के समय पौरोहित्य का कार्य निभाया है क्योंकि उससे बड़ा कोई कर्मकांड का ज्ञाता नहीं था। मरते-मरते भी उसने लक्ष्मण को राजनीति के सिद्धांत बताए हैं ताकि राम अपने राज्य-शासन में उन सिद्धांतों का उपयोग कर सकें। ऐसी ही सूचनाएं महिषासुर के बारे में भी हैं। शम्बरासुर, तारकासुर, अन्धकासुर, शुम्भ-निशुम्भ, हिरण्याक्ष, हिरण्यकशिपु, मधु-कैटभ, सभी इसी प्रकार की असाधारण शक्तियों से संपन्न बताए गए हैं।
इन सब कथाओं का अर्थ क्या है? ईश्वर की शक्ति का बखान तो इनका अर्थ नहीं हो सकता क्योंकि ईश्वर परिभाषा से ही सर्वशक्तिमान है। जो बात समझ में आती है, वह केवल यही है कि जिन उपलब्धियों को हम उपलब्धि मानते हैं वे वस्तुत: उपलब्धियां नहीं हैं। इस चेतना का विस्तार सर्वव्यापी है।
यहां बात यह नहीं है कि धन कमाना या शक्तिशाली होना बुरा है क्योंकि धन और सत्ता से संपन्न होने की सीमा बताने वाले, वैराग्य का उपदेश देने वाले हर देश-काल में हुए हैं। कोई संस्कृति नहीं है जिसमें केवल भौतिक समृद्धि आदर्श के रूप में स्वीकृत की गई हो, किंतु अन्य स्थानों में ये चेतावनियां धन और सत्ता से प्राप्य सांसारिक सुख के विचार के ही खिलाफ हैं। इस दृष्टि से भारतीय चेतना की पहुंच अधिक दूरगामी है क्योंकि विचार और दार्शनिक चर्चा के स्तर पर भी और इन ‘असुर-वध’ की कथाओं के माध्यम से भी उसने साधन और साध्य के अंर्तसबंध का चरित्र पहचानने की कोशिश की है।
‘वाल्मीकि-रामायण’ के अनुसार रावण को यह मालूम है कि सीता जब तक राम के पास हैं, राम अजेय हैं अत: पहले सीता-हरण करता है, फिर वह राम को पराजित करने के योग्य अपने को समझता है। ऐसा नहीं है कि वह शूर्पणखा के अपमान का बदला चुकाने के लिए तुरंत ही सेना लेकर राम के ऊपर चढ़ाई कर दे। बुनियादी गलती यहां भी वही है- रावण ने शक्तिस्वरूपा जानकी को भी एक ऐसी वस्तु समझा, जिसे साधारण रुपए-पैसे की तरह ही अपने सामरिक बल की पुष्टि के लिए भी इस्तेमाल किया जा सकता है, हालांकि विद्या, धन, बल, ये सभी उपलब्धियां सीमित हैं।
शक्ति की आराधना जब की जाती है तो वर भी प्राप्त होता ही है। रावण को भी शक्ति की सहायता प्राप्त थी, किंतु उसे उसके असीम रूप का बोध नहीं था। राम की शक्ति-पूजा में उस असीम रूप का बोध था, जैसा कि निराला ने बताया है- उन्हें सामने के त्रिकूट पर्वत और समुद्र में भी देवी का स्वरूप दिखाई दिया और अंत में यह भी समझ सकें कि पूजा के नीलकमल और उनकी अपनी आंख एक ही हैं। यह ऐक्य-बोध ही उनकी साधना की वरप्राप्ति थी जिसके नाते महाशक्ति राम के बदन में हुईं लीन। रावण-वध का यही रहस्य है- भेद-बुद्धि का विनाश, अहंकार की समाप्ति। दशहरा इसी उद्यम का उत्सव है।
राम की शक्ति-पूजा में उस असीम रूप का बोध था, जैसा कि निराला ने बताया है- उन्हें सामने के त्रिकूट पर्वत और समुद्र में भी देवी का स्वरूप दिखाई दिया और अंत में यह भी समझ सकें कि पूजा के नीलकमल और उनकी अपनी आंख एक ही हैं। यह ऐक्य-बोध ही उनकी साधना की वरप्राप्ति थी।
आप सभी को विजय पर्व पर हार्दिक शुभकामनाएं.................................................
दीपक
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अच्छा आलेख!
ReplyDeleteविजय-दशमी पर्व की हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं
सादर
समीर लाल
विजय दशमी की आप सब को बधाई और शुभ कामनाएँ|
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